Pitru Paksha & Shraddh Vidhi


नमस्कार मैं हूं आपका अपना ज्योतिषी हनुमान मिश्रा और आप देख रहे हैं एस्ट्रोसेज टी.वी.। आज हमारी चर्चा का विषय है “श्राद्ध कर्म” इसमें हम आपको एक भ्रांति के संदर्भ में भी बताएंगे कि क्या कोई स्त्री श्राद्ध कर्म कर सकती है? यदि हां तो किस परिस्थिति में कोई स्त्री श्राद्ध कर्म कर सकती है? साथ ही हम आपको श्राद्ध के सरल नियमों के बारे में भी बताएंगे!! मित्रो!! आश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से अमावस्या तक का समय श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष के नाम से जाना जाता है। एक पखवाड़े की यह अवधि दिवंगत पितरों की सेवा अर्थात श्राद्ध कर्म के लिए विशेष रूप से निर्धारित की गई है। सनातन मान्यता के अनुसार पितृ पक्ष में पितरों के लिए किए गए कार्यों से पूर्वजों की आत्मा को शांति मिलती है तथा श्राद्धकर्ता को पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है। दरअसल श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है और श्रद्धा, श्राद्ध का प्रथम अनिवार्य तत्व है अर्थात पितरों के प्रति श्रद्धा प्रकट करना ही श्राद्ध है। गरुड़ पुराण ‘‘समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुखी नहीं रहता। पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है। देवकार्य से भी अधिक पितृकार्य का महत्व बताया गया है। अत: देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना आवश्यक है और यही कल्याणकारी भी है।’’ यही कारण है कि देवपूजन से पूर्व पितर पूजन किये जाने का विधान हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि पितरों की आत्मा की शांति हेतु श्राद्ध कर्म कौन-कौन कर सकता है? क्योंकि श्राद्ध के भी अपने नियम हैं:

शास्त्रों में श्राद्ध के अधिकारी के रूप में विभिन्न व्यवस्थाएं दी गई हैं। इस व्यवस्था के पीछे आचार्यो का उद्देश्य यही रहा है कि श्रद्ध कर्म विलुप्त न हो जाय। शास्त्रों में कहा गया है कि पिता का श्राद्ध पुत्र को करना चाहिए एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है। पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं। पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर पुत्री का पुत्र श्राद्ध कर्म कर सकता है। इसके भी न होने पर भतीजा भी श्राद्ध कर सकता है। गोद लिया पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी होता है। स्मृति संग्रह एवं श्रद्ध कल्पलता के अनुसार सपिंड अर्थात पूर्व की 7वीं पीढ़ी तक के परिवार का सदस्य, सोदक अर्थात 8वीं पीढ़ी से 14वीं पीढ़ी तक का पारिवारिक सदस्य भी श्राद्ध करने का अधिकारी माना गया है। इस क्रम में कोई न मिले तो माता के कुल के सपिंड और सोदक को भी श्रद्ध करने का अधिकारी माना गया है।

यदि किसी के पुत्र न हो और पत्नी जीवित हो तो ऐसी स्थिति में पत्नी दिवंगत पति की आत्मा की शांति के श्राद्ध कर्म कर सकती है। किसी के न होने पर पुत्री भी श्राद्ध कर्म कर सकती है। उसी कुल की विधवा स्त्री भी पितरों की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध-कर्म कर सकती है। ऐसा शास्त्रों में ही कहा गया है कि पिता एवं माता के कुल में कोई न हो तो स्त्री को भी श्राद्ध करने का अधिकार प्राप्त है। पुत्रियों में भी विवाहित पुत्री को वरीयता दी गई है। सारांश यह कि परिस्थितिवश पत्नी, पुत्री या उसी कुल की किसी भी स्त्री को अपने पितरों की श्राद्ध करने का अधिकार के साथ धर्मशास्त्र प्रदान करते हैं। इस विषय पर अनेकों तर्क व प्रमाण धर्मशास्त्रों में बताए गए हैं।

पितरो को प्रसन्न करने के लिए किए जाने वाले श्राद्ध को शास्त्रों में पितृयज्ञ कहा गया है। शास्त्रों में कहा गया है कि पितर ही अपने कुल की रक्षा करते हैं, जिस घर परिवार के पितर खुश रहते हैं उसमें कभी भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं आता, इसलिये श्राध्द करके उन्हें संतुष्ट रखें। लेकिन श्राद्ध के कुछ नियम हैं। वो नियम क्या हैं, आइए जानते हैं!! सबसे पहले जानते हैं कि कब किसका श्राद्ध करना चाहिए:-
वैसे तो श्राद्ध की शुरुआत भाद्रपद पूर्णिमा से हो जाती है जिसे महालयारम्भ भी कहते हैं। भाद्रपद पूर्णिमा से अश्वनि अमावस्या तक प्रतिदिन श्राद्ध के रूप में पितरों को अर्पण-तर्पण किया जाता है लेकिन इनमें से कुछ खास तिथियों को कुछ विशेष रिश्तेदारों के श्राद्ध करने का विधान है। अश्वनि कृष्ण प्रतिपदा के दिन नाना-नानी का श्राद्ध करने का विधान है, नवमी तिथि के दिन माता का करना चाहिए, द्वादशी तिथि के दिन सन्यासियों का श्राद्ध किया जाता है, चतुर्दशी तिथि के दिन उन लोगों का श्राद्ध किया जाता है जिनकी मृत्यु किसी शस्त्र के लगने से हुई हो, जल में दूबने से हुई हो, आग में जलने से हुई हो, किसी जहरीले जीव के काटने या अन्य किसी प्रकार से जहर से हुई हो अर्थात जिन व्यक्तियों की अकाल-मृत्यु यानी कि दुर्घटना, सर्पदंश, हत्या, आत्महत्या आदि से हुई हो, उनका श्राद्ध केवल चतुर्दशी तिथि को ही किया जाता है। चतुर्दशी तिथि में लोक छोड़ने वालों का श्राद्ध (सर्वपितृ श्राद्ध) का ध्यान रखा जाता है, जैसे जिन व्यक्तियों की सामान्य मृत्यु चतुर्दशी तिथि को हुई हो, उनका श्राद्ध केवल पितृपक्ष की त्रयोदशी अथवा अमावस्या को किया जाता है। सुहागिन स्त्रियों का श्राद्ध केवल नवमी को ही किया जाता है। नवमी तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम है। संन्यासी पितृगणों का श्राद्ध केवल द्वादशी को किया जाता है। पूर्णिमा को मृत्यु प्राप्त व्यक्ति का श्राद्ध केवल भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा अथवा आश्विन कृष्ण अमावस्या को किया जाता है। आइए अब श्राद्ध की विधि के बारे में चर्चा कर ली जाय!! विधि इस प्रकार है-

सुबह उठकर स्नान करना चाहिए तत्पश्चात देव स्थान व पितृ स्थान को गाय के गोबर से लीपना चाहिए और गंगाजल से पवित्र करना चाहिए। यदि सम्भव हो तो घर के आंगन में रंगोली बनाएं। घर की महिलाएं शुद्ध होकर पितरों के लिए भोजन बनाएं। जो श्राद्ध के अधिकारी व्यक्ति हैं, जैसे श्रेष्ठ ब्राह्मण या कुल के अधिकारी जो दामाद, भतीजा आदि हो सकते हैं उन्हें न्यौता देकर बुलाएं। ब्राह्मण से पितरों की पूजा एवं तर्पण आदि करवाएं। पितरों के निमित्त अग्नि में गाय का दूध, दही, घी एवं खीर का अर्पण करें। गाय, कुत्ता, कौआ व अतिथि के लिए भोजन में से चार निवाले निकालने चाहिए। ब्राह्मण को आदरपूर्वक भोजन कराना चाहिए, मुखशुद्धि, वस्त्र, दक्षिणा आदि से ब्राह्मण का सम्मान करें। ब्राह्मण को चाहिए कि स्वस्तिवाचन तथा वैदिक पाठ करें तथा गृहस्थ एवं पितर के प्रति शुभकामनाएं व्यक्त करें। श्राद्धपक्ष के दौरान दिन में तीन बार स्नान एवं एक बार भोजन का नियम पालते हुए श्राद्ध विधि करनी चाहिए। श्राद्ध में बिल्वपत्र, मालती, चंपा, नागकेशर, कनेर, कचनार एवं लाल रंग के पुष्प का उपयोग वर्जित है। इस्लिए इसमें श्वेत पुष्प ही उपयोग में लाएँ। अतिथि के पैर स्वयं धोना चाहिए। शास्त्र में कहा गया है कि पितृ पक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं, और घर, परिवार व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। तो आशा है इस चर्चा से आपके मन की वो संकाएं दूर हुई होंगी जो श्राद्ध को लेकर आपके मन में थीं, साथ ही अब आप श्राद्ध के सरल नियमों को जानकर उसे अपना कर न केवल पितरों के मोक्ष का उपाय करेंगे बल्कि पितृदोषादि का भी समन करने का काम करेंगे। नमस्कार!!

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